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त्याग -पत्र

त्याग -पत्र 
हिमांशु पाठक 
मौलिक व स्वरचित 
विद्यालय के गेट से बाहर आकर आज ,मधु अपने आप को हल्का महसूस कर रही है। वह बाहर सड़क पर पहुंच कर एक रेस्तरां में चली गयी और चाय का ऑर्डर देकर एक कोने में बैठ गयी ।
    आज एक बा वोर फिर इस से मधु को सत्य एवं ईमानदारी के लिए स्वयं को शहीद करना पड़ा है। विद्यालय भी अब शिक्षा के मंदिर के स्थान पर राजनीति का केन्द्र बन चुकें हैं। शिक्षक अपने कर्तव्य पथ से भटक कर चाणक्य बन कर देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। प्रबंधन नौनिहालों को धन की देवी मानकर उनकी स्तुति गान करने में व्यस्त रहते हैं।हर कोई, बस कर्तव्य की इतिश्री करने में व्यस्त हैं। ना छात्रों को पढ़ाई से मतलब,ना शिक्षकों को रचनात्मकता से मतलब, ना ही अभिभावकों को बच्चों के हितों से मतलब और ना ही प्रबंधन को बच्चों के भविष्य से मतलब।  बस हर कोई घिसी-पिटी व्यवस्था पर आंखों में काली पट्टी बांध विश्वास करता चला जा रहा है; जाने क्यों ? कुछ पता नहीं। सब कुछ ठीक हैं ।
कर्तव्यनिष्ठ  शिक्षकों का तो अब मानमर्दन होने लगा है।कक्षा में बैठने की कुर्सी गायब,इससे ज्यादा एक शिक्षक का और क्या अपमान हो सकता है कि छात्र-छात्राओं का को तो कक्षा में बैठने को स्थान दिया गया और शिक्षक का बैठने का स्थान छिन लिया गया। उफ़ सी होने लगी थी इस व्यवस्था से। आज आजादी तो मिली।
एक वो संस्कृति थी जहां गुरु को उच्च स्थान पर बैठाकर, छात्र स्वयं उनके चरणों में बैठ शिक्षा प्राप्त करते थे और आज ये एक नई संस्कृति का प्रादुर्भाव है, जहां शिक्षक से ज्यादा विद्यार्थी का महत्व है। या फिर इस दुनियाँ में यदि किसी का महत्व है तो बस विषधरों का।
विषधरों से यार आया कि एक बार कुछ विषधरों से मेरा भी पाला पड़ा था  या यूं कह लीजिए कि मेरा तो, अक्सर ही, सामना होते रहता है; इन विषथरों से,जानते-समझते हुए भी मैं कर,कुछ कहाँ पाती हूँ। बस बेबस हो, दो आँसुओं को बहा लेती हूँ या फिर अपने घर में ही अपना गुस्सा उतार लेती हूँ । कभी-कभी तो स्वयं पर और कभी-कभी घरवालों पर।
विषधरों की भी कहाँ कमी है साहिब, बल्कि मैं तो कहती हूँ कि ये विषधर तो दो मुहें विषधर हैं; जिनको समझ पाना बहुत,ही मुश्किल भरा काम है और उतना ही मुश्किल है इनसे सँभल  पाना।
   आम आदमी सिवाय इसके और कर भी क्या सकता है । वह घर में ही शेर बनता है,बाहर तो वह भीगी बिल्ली बनकर विचरता रहता है।मैं भी इससे कहाँ अछूती हूँ।
    ये जो विषधर हैं ना इनको पहचानना बहुत ही दुष्कर है। विषधरों को पहचानने के लिए आपके पास दिव्यदृष्टि होनी चाहिए।
   विषधर से मेरी मुलाकात तब हुई, जब मेरी नियुक्ति एक विद्यालय में हुई। उस विद्यालय में ऐसा विषधर था जो अपने ही खास रिश्तेदार को ही डसने को तैयार बैठा था। इस कार्य में उसका साथ देने वालें कई सारे विषधर थें।जिनको आता-जाता तो कुछ भी नहीं था,काम भी वो कुछ नही करतें थें, बस काम का जिक्र धृतराष्ट्र के सामने चिल्ला-चिल्ला कर करतें, क्योंकि उन्हें पता था कि विद्यालय प्रशासन तो धृतराष्ट्र भी है और बजरमुर्ख भी। ऐसा मैंने कई बार उन विषधरों को कहते हुए अक्सर  सुना था। 
अच्छा आप कहेंगे कि जब वो विषधर हैं तो फिर अपने अंदर का विष बाहर उगल कैसे दिया?
इसका भी एक किस्सा है एक बार विषधर और विषधरनी आपस में गपियाश कर रहें थें।
अचानक विषधरनी की आँखों में उदासी के काले रंग छाने लगें  थें तो विषधर ने चिन्ता का कारण पूछा तो विषधरनी कहने लगी," अब तो मेरा भी स्थान बदल जाएगा। अरे विषधर मुझें देर-सबेर फिर यहाँ आना ही पड़ेगा,नया सुपात्र शीघ्र ही आ जाएगा,वो अपनी सत्ता सँभाल लेगा और फिर मेरा क्या वही, लौटकर बुद्ध घर को आए।"
विषधर जो अपनें सिंहासन पर विराजमान था, संगणक यंत्र के साथ अचानक अपना मुँह उठा कर बोला अजी! कितना ही बड़ा सुपात्र क्यों ना हो उसे कुपात्र सिद्ध करना मेरा काम है।"
"महाराज मान जाएंगे", प्रश्न करते हुए विषधरनी कहने लगी।
"अजी! महाराज का क्या एक तो अंधे,ऊपर से बहरे और तो और बजरमुर्ख;जैसा मैं कह दूँगा गलत या सही उन्होंने मान लेना है। मूर्ख कहि के! हा! हा! हा!" विषधर अट्टहास करने लगा।
"अरे विषधर हल्के दिवारों के भी कान होते हैं", विषधरनी चौक्कनी होकर कहने लगी।
"अरे मूर्ख महाराज के सामने कोई कितना ही बड़ा सत्यवादी क्यो ना आ जाए,वो मेरे अलावा और किसी पर विश्वास ही नहीं करतें। विषधर फिर कहने लगा।
"अरे विषधरनी! याद कर वो घटनाक्रम, जब एक सुपात्र आया था विद्यालय कि दिशा और दशा बदलने; हुआ क्या महाराज ने मेरे से पूछा ," क्यों रे! विद्यालय कैसा चल रहा है? मैंने नमक-मिर्च लगाकर सब कुछ झूठ-मूठ बनाकर महाराज को बता दिया। फिर देखा नही था ,दूसरे दिन दल बल के साथ महाराज आ गयें सबों को दरबार में बुलाया सिवाय सुपात्र के! महाराज ठहरे बजरमुर्ख ना कुछ सोचा, ना कुछ समझा बस सुपात्र को ना बुलाकर पहला अपमान कर दिया, फिर बाकी काम तो विषधरनी तूने और तेरी सेना ने कर दिया। बता अब कौन बोला। सब मौन थें ।अरे विषधरनी! ये लोग डरपोक है !  कुछ ना बोलने वाले और देखकर भी अंधे बने रहने वालें।इस तरह महाराज को बरगलाना आसान है। जो ज्यादा बोला उसकी भी गलतियाँ निकाल दो। इसके लिए हर कक्षा में चेले-चपाटे रहतें ही हैं।  बस जैसा हम चाहेंगे, वैसा ही दो-चार बोल देंगे इस डर से कोई बोलता नहीं बस महाराज दो-चार की सुनकर फैसला दे देते हैं। देखना इसके साथ भी ऐसा ही होगा। धीरे-धीरे  हम इस सुपात्र को कुपात्र बना देंगे। फिर मैं महाराज तक समाचार नमक-मिर्च लगाकर झूठ-मूठ का बता दूंगा,फिर महाराज का दरबार सजेगा। सुपात्र उसमे सम्मिलित नही होगा,बाकि काम विषधरनी तुम और तुम्हारी सेना करेगी। महाराज एक बार सब से औपचारिकता वश पूछेगें,सब शान्त रहेंगे, अपनी नौकरी जो प्यारी है। फिर सुपात्र की विदाई कुपात्र के रूप मेंअंतर फिर विषधरनी प्रधानाचार्य का सिंहासन तुम्हारा ।हो!हो!हो!। दोनों हँसने लगें ।अचानक मुझे देख सकपका गयें और फिर शुरु हो गया मेरे विरुद्ध भी षडयंत्र। इस तरह से
ये विषधरों की सेना विद्यालय में राज कर रही थी।परिणाम स्वरूप एक विषधर तो अजगर का रूप धारण कर चुका था। करता कुछ नही था बस जो कोई ईमानदार और कार्यकुशल पात्र पदासीन होता ,तो विषधरों की सेना तिलमिला जाती,क्योंकि उनकों भय रहता कि हमारी पोल-पट्टी ही ना खुल जाए। 
    फिर क्या विषधर सब एकत्रित हो, षडयंत्र रचना शुरू कर देतें और देखतें ही देखतें सुपात्र को कुपात्र बनाने का प्रयास अनवरत करते रहतें वो काम नही करतें बस धृतराष्ट्र के सामने चिल्लाने लगतें अंधा और मूर्ख धृतराष्ट्र झाँसे में आ जाता और सुपात्र को कुपात्र मान लेता अंदर फिर विषधर उस सुपात्र को निगलकर  अपने षडयंत्र की सफलता पर जश्न मना रहें होतें।
अच्छा धृतराष्ट्र को समझाने का प्रयास, विदुर नही किया होगा, ऐसा नही मगर क्योंकि शकुनि हुआ धृतराष्ट्र का साला और विषधर आँखों का तारा ,इसलिए अंध विश्वास और अंध मोह में धृतराष्ट्र अजगर की नियत को पहचान ही नही पाएं। आश्चर्य की बात कि विद्यालय का स्तर भी दिन पर दिन गिरता जा रहा था। विद्यालय की प्रगति का ग्राफ दिन पर दिन ,वर्ष दर वर्ष गिरता ही जा रहा था; और विषधरों की सेना धृतराष्ट्र को झूठा आश्वासन देते जा रही थी। इस तरह विषधर तो खा-पीकर तंदुरुस्त हो गया और उसकी सेना हो गयी बलशाली और एक दिन ऐसा आया कि विद्यालय का संपूर्ण नियंत्रण विषधर और उसकी सेना ने  ले लिया और धृतराष्ट्र को पद से ही पदच्युत कर दिया।
   आज भी  धृतराष्ट्र  पश्चाताप के आँसु बहाते हुए  कारागार में अपना शेष जीवन व्यतीत कर रहा है और विषधर अपनी सेना के साथ विद्यालय चला रहा है।
विषधर जो  सत्तासीन हो चुका है विषधर की खास परिचायिका प्रधान सैविका बन राज-काज में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और धृतराष्ट्र को एक पत्तल में दूर से खाना फेंक आती है और बाकि सेना भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका बखुबी निभाती हैं और विषधर की दिन-रात सेवा करती है। 
   इस तरह से समय गतिमय होता चला जा रहा है।
इस बात को मैं बेखूबी समझ चुकी थी और जान भी चुकी थी इसलिए आज मुझे भी इतना विवश कर दिया कि मैं भी-पत्र भ त्याग -पत्र दे कर विद्यालय से बाहर आ गयी। अभी मधु अपनें विचारों में खोई हुई थी कि तभी चाय वाले ने मैडम चाय पी लीजिए, कहतें हुए मधु को तंद्रा से बाहर निकाला।
आज मधु बहुत खुश है। फ़ुरसत से चाय को कंठ से उतार कर मधु निकल पड़ी अपनी स्कूटी में लंबी यात्रा पर खुला ,नीला आसमान हरे-भरे पहाड़ और शीतल मन्द बयार ।
मधु का मन कर रहा है खुलकर जोर से गाऊं,
"काँटों से खींच के ये आँचल
 तोड़ के बंधन बांधे पायल हो ओ ओ 
कोई ना रोको दिल की उड़ान को
दिल वो चला.. आ आ आ..
आज फिर जीने की तमन्ना है
आज फिर मरने का इरादा है
आज फिर जीने की तमन्ना है
आज फिर मरने का इरादा है"


समाप्त 
हिमांशु पाठक 
"पारिजात"
ए-36,जज-फार्म,
छोटी मुखानी,
हल्द्वानी-263139 
नैनीताल, उत्तराखंड 
मोबाइल-7669481641

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3 Comments

RISHITA

01-Oct-2023 12:06 PM

Nice

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Punam verma

01-Oct-2023 09:21 AM

Nice

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Gunjan Kamal

01-Oct-2023 08:08 AM

बहुत खूब

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